स्याही
इस बार अगर कोई भूले से, नाम मेरा पूछे तुमसे
कह देना कोई राही है, जिसकी आँखो में स्याही है
वो स्याही है कुछ सपनों का, कुछ अपना कुछ अपनों का
उस स्याही को गहराने को, जीवित पन्नों पर लाने को
बस अपनी धुन में रहता है, चुपचाप अकेला चलता है
अविरल झरने सा बहता है, दिनकर कि दीवा मे जलता है
गोधूलि की गोद में खोता है, शशि के सान्निध्य में सोता है
क्या राग-द्वेष, क्या रंग-वेष
इन सबसे परे इतराता है, आत्मा का दीप जलाता है
गिर जाए अगर टकरा के, उठ पत्थर पर मुस्काता है
नियति जो छलती है तो, उसे खुल कर गले लगता है
दुनिया अजीब कह ले, उसको कोई परवाह नही
पागल ढ़ोंगी कह ले, इसपर भी कोई आह नही
यह विचित्र चित्र तुम्हे, उसका चरित्र बतलाता है
पर जगत का तर्क, उसे कहाँ समझ में आता है
अजय झा - चन्द्रम
Bhut khub ajay.....
जवाब देंहटाएंIts nice to see you write...well done
जवाब देंहटाएंWahh kaviraaj!
जवाब देंहटाएंKhatarnaak talent👌
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